भारत हमेशा से अपनी सांस्कृतिक विरासत, पारिवारिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं के लिए विश्वभर में आदर्श रहा है। यह देश वह भूमि है, जहाँ रिश्तों की नींव विश्वास, त्याग और संस्कारों पर टिकी होती थी। लेकिन आज, आधुनिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अंधी दौड़ ने इस नींव को हिला दिया है। परिवार, जो भारतीय समाज की आत्मा हुआ करता था, अब टूटन और विघटन का शिकार हो रहा है। ऐसे में आर्टिस्ट चंद्रपाल राजभर का यह विचार कि "जब एक पिता अपनी जिम्मेदारियों का पूरी तरह निर्वहन नहीं कर पाता, तब बच्चों में संस्कारों की कमी और स्वतंत्र जीवनशैली की लालसा जन्म लेती है," हमारे समय की सच्चाई को दर्शाता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण उनके बचपन में प्राप्त शिक्षा, अनुभव और पारिवारिक माहौल से होता है। पिता परिवार का वह स्तंभ होता है, जो न केवल आर्थिक रूप से घर को संभालता है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी परिवार को जोड़े रखता है। जब पिता अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता है या उन्हें अधूरा छोड़ देता है, तो बच्चों में असुरक्षा की भावना पैदा होती है। यह भावना उन्हें आत्मकेंद्रित बनाती है और वे अपने परिवार, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझने में विफल रहते हैं।
आधुनिक जीवनशैली ने स्वतंत्रता का ऐसा मोहजाल बुन दिया है, जो बच्चों को यह विश्वास दिलाता है कि संस्कार और परंपराएँ उनके विकास में बाधा हैं। वे इसे प्रगति के मार्ग में रुकावट मानते हैं। लेकिन यह स्वतंत्रता वस्तुतः उन्हें संस्कारविहीनता और स्वार्थ की ओर धकेलती है। इसका परिणाम यह होता है कि परिवार केवल औपचारिकता बनकर रह जाते हैं, और रिश्तों में आत्मीयता के स्थान पर औपचारिकता हावी हो जाती है।
यह स्थिति केवल पारिवारिक विफलता नहीं है, बल्कि यह समाज के बिखरते मूल्यों का संकेत है। जब बेटा या बेटी अपने माता-पिता की भावनाओं और उनकी जरूरतों को नजरअंदाज कर अपने स्वार्थ की पूर्ति में लीन हो जाते हैं, तो यह समाज में बेवफाई के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। यह बेवफाई केवल पारिवारिक संबंधों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय चरित्र को भी प्रभावित करती है।
आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर के चिंतन का यह पक्ष विशेष रूप से गहरा है कि "संस्कारविहीनता केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का परिणाम नहीं, बल्कि माता-पिता की असफलता का दर्पण है। जब माता-पिता स्वयं अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा देने में असफल रहते हैं, तो बच्चे समाज में अपने कर्तव्यों को नहीं समझ पाते।" यह कथन हमारे समाज की जड़ों में पनपती समस्या को उजागर करता है।
आज बच्चों को स्वतंत्रता देने का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि वे अपनी परंपराओं और संस्कारों से कट जाएँ। स्वतंत्रता का अर्थ जिम्मेदारी है, और यह जिम्मेदारी माता-पिता की है कि वे अपने बच्चों को यह समझाएँ। उन्हें यह सिखाना आवश्यक है कि स्वतंत्रता और संस्कार साथ-साथ चल सकते हैं। आधुनिकता की दौड़ में हमें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि यही जड़ें हमें हमारी पहचान देती हैं।
मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों से यह स्पष्ट होता है कि बच्चों को बचपन से ही अपने परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदार बनाने के लिए उन्हें व्यवहारिक अनुभव देना जरूरी है। यह अनुभव उन्हें यह समझने में मदद करेगा कि रिश्ते केवल कर्तव्यों का नहीं, बल्कि भावनाओं का भी बंधन हैं। जब एक पिता अपने बच्चों को समय देता है, उनके साथ संवाद करता है और उन्हें नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाता है, तो यह बच्चों के व्यक्तित्व में स्थायी रूप से जुड़ जाता है।
आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का यह चिंतन न केवल एक चेतावनी है, बल्कि एक आह्वान भी है। यदि भारत को अपनी मूल पहचान और संस्कृति को बचाना है, तो परिवारों को फिर से अपने बच्चों के लिए संस्कार और परंपराओं के स्रोत बनना होगा। बच्चों को केवल भौतिक सफलता की शिक्षा देने के बजाय, उन्हें यह सिखाना होगा कि सच्चा सुख मानवता, करुणा और संस्कारों में निहित है।
यह समय की मांग है कि हम आत्मनिरीक्षण करें और अपने परिवारों को पुनः उनके मूल स्वरूप में वापस लाएँ। क्योंकि यदि हमने आज इस समस्या का समाधान नहीं किया, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल संस्कारविहीन स्वतंत्रता और संबंधविहीन स्वार्थ का ही अनुभव करेंगी। आर्टिस्ट चंद्रपाल राजभर के विचार हमें यह स्मरण कराते हैं कि "संस्कारों की रक्षा केवल परिवार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे समाज का दायित्व है। यदि हम यह दायित्व नहीं निभाएंगे, तो हमारा भारत वह भारत नहीं रहेगा, जिस पर हम गर्व कर सकें।"
आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर
लेखक-SWA MUMBAI
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