Thursday, April 17, 2025

राजभर समाज के बड़े चेहरे अक्सर लोगों को अपने से ऊपर नहीं बढ़ने देना चाहते आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का एक चिंतन

राजभर समाज के भीतर पनपती एक दुखद सच्चाई यह है कि जब कोई व्यक्ति प्रतिभा, समर्पण और मेहनत के दम पर आगे बढ़ता है, तो कई बार समाज के ही कुछ प्रभावशाली चेहरे उसे रोकने का षड्यंत्र रचते हैं। यह विरोध प्रत्यक्ष नहीं होता, बल्कि बहुत बार यह इनडायरेक्ट ढंग से सामने आता है—दूसरों को भड़काना, अफवाह फैलाना या अवसरों से वंचित कर देना। इसकी जड़ें कहीं न कहीं उस हीन भावना में छिपी हैं जो खुद को ऊंचा दिखाने की ज़रूरत महसूस करती है, भले ही उसके लिए किसी और को नीचा क्यों न करना पड़े।

यह प्रवृत्ति न केवल समाज के सामूहिक विकास में बाधा बनती है, बल्कि उन युवा चेहरों को भी हतोत्साहित करती है जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं। चन्द्रपाल राजभर का यह कहना अत्यंत तार्किक और प्रासंगिक है कि यदि ऊंचा ही बनना है तो अपने व्यक्तित्व को ऊंचा करो, न कि दूसरों के चरित्र को गंदा करके खुद को उजला सिद्ध करने की कोशिश करो। यह बात न केवल समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित है, बल्कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत गहन है। जब कोई किसी के विकास से भयभीत होकर उसे गिराने की कोशिश करता है, तो वह दरअसल अपने भीतर की असुरक्षा को ही प्रकट कर रहा होता है।

सशक्त समाज वही होता है जिसमें हर व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर आगे बढ़ने का अवसर मिले। यदि हम समाज में श्रेष्ठता की होड़ को प्रतियोगिता की बजाय षड्यंत्र का रूप देंगे, तो हम सामूहिक पतन की ओर अग्रसर होंगे। ऐसे में हमें आत्मचिंतन करना होगा—क्या हम सचमुच अपने समाज के भले की कामना करते हैं, या फिर केवल अपने नाम का परचम लहराना चाहते हैं, भले ही बाकी बर्बाद हो जाएं?

जरूरत इस बात की है कि हम प्रतिभा को सम्मान दें, मार्गदर्शन करें, सहयोग करें और उस मानसिकता को त्यागें जो दूसरों की राह में कांटे बिछाकर खुद को मसीहा समझने की भूल करती है। याद रखिए, चरित्र को गिराकर कोई ऊंचा नहीं बनता, बल्कि इतिहास ऐसे लोगों को कभी क्षमा नहीं करता। व्यक्तित्व की ऊंचाई ही स्थायी सम्मान की सीढ़ी है।

आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर 
लेखक SWA MUMBAI 

Tuesday, April 8, 2025

जंगलों की बेदर्द कहानी

कभी थी ये धरती हरी-भरी, अब राख हो गई
जंगलों की कहानी भी आज नम आंख हो गई।

वो शाख़ें जो चिड़ियों की नींदों का घर थीं
काट दीं बेदर्दी से, हर दिशा ख़ामोश हो गई।

जो पत्तों की सरसराहट से मिलती थी शांति
अब मशीनों की आवाज़ से बेहाल हो गई।

जहाँ मोर नाचते थे, हिरन कूदते थे कल
वो ज़मीन अब सीमेंट की किताब हो गई।

हर पेड़ जो साँसों की तरह था ज़िन्दगी में
उसकी जड़ भी उखाड़ी गई, और बात खो गई।

साँप, बाघ, हाथी, परिंदे सब भटकते फिरें
इंसानों की हवस से उनकी राहें रोश हो गई।

जल, हरियाली, छाँव अब ढूंढे नहीं मिलती
धरती माँ खुद भी अपनी ही लाश हो गई।

आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर 
लेखक SWA MUMBAI 

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सूखी टहनियों पे अब कोई गीत नहीं पलते
जंगलों के होंठों से स्वर अब विरक्त हो गये।

धुआं-धुआं सा दिखता है हर कोना अब यहाँ
कभी जो वादी थे, वो बर्बाद इब्तिदा हो गये।

नदी का रुख मोड़ दिया, तालाब छिन लिया
प्रकृति की छाती छलनी सी दास्तां हो गये।

पेड़ रोए, ज़मीं चीखी, पर किसी ने न सुना
इंसान की नफ़्स से हर सदा बेजुबां हो गये।

कब्र बन गए वो रास्ते, जिनसे कभी बहार चली
हरियाली अब तस्वीरों में महज़ इक दवा हो गये।

आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर 
लेखक SWA MUMBAI