हम एक अभिशापित समाज में जी रहे हैं। आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का एक लघु चिंतन
हम एक ऐसे दौर में साँस ले रहे हैं, जहाँ मनुष्य अपनी संवेदनाओं से कटता जा रहा है, जहाँ रिश्ते औपचारिकता बन चुके हैं, और जहाँ जीवन की गति ने मनुष्य को मशीन से अधिक कुछ नहीं छोड़ा। आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का यह चिंतन — "हम एक अभिशापित समाज में जी रहे हैं" — कोई आकस्मिक या आवेशजन्य वक्तव्य नहीं है, बल्कि यह आज की सामाजिक, मानसिक और नैतिक स्थिति का गहन, आत्ममंथन से उपजा हुआ निष्कर्ष है। यह एक कलाकार की पीड़ा नहीं, पूरे समाज की छुपी हुई चीख है जिसे अब तक अनसुना किया गया है।इस अभिशाप की जड़ें बहुत गहरी हैं। यह अभिशाप न तो किसी ग्रंथ में वर्णित है, न ही किसी ज्योतिषी की गणना में, बल्कि यह हमारे रोज़मर्रा के आचरण, हमारी सोच, और हमारी प्राथमिकताओं से उपजा हुआ है। जब एक समाज में ईमानदार को मूर्ख समझा जाने लगे, जब संवेदनशीलता को कमजोरी मान लिया जाए, जब कला, साहित्य, शिक्षा और अध्यात्म की जगह केवल धन और प्रदर्शन को महत्त्व मिलने लगे—तो समझिए कि वह समाज एक मौन अभिशाप से ग्रसित हो चुका है।मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। बच्चे जो स्वाभाविक रूप से कल्पनाशील और जिज्ञासु होते हैं, उन्हें हम अंकों और रट्टा मार परीक्षा पद्धतियों में उलझाकर उनकी मौलिकता को कुचल रहे हैं। युवाओं को हम केवल प्रतियोगिता में धकेल रहे हैं—'बेहतर से बेहतर' की ऐसी दौड़ में, जिसमें वे अपने भीतर के 'स्व' से बहुत दूर निकल जाते हैं। और वयस्क वर्ग—वह या तो सामाजिक मुखौटों में कैद है, या फिर मानसिक थकान और आत्मिक रिक्तता से जूझ रहा है।इस मानसिक और आत्मिक सूखे का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है कि समाज सामूहिक रूप से सहानुभूति खो रहा है। अब कोई किसी की पीड़ा को नहीं समझता, न महसूस करता है। कोई रो रहा हो तो हम फ़ोन निकालकर वीडियो बनाते हैं; कोई गिरता है तो हम हँसते हैं, कोई जला दिया जाता है तो हम हैशटैग ट्रेंड करते हैं, लेकिन मदद नहीं करते। यही तो है वह अभिशाप, जो हमें मनुष्य से केवल 'प्रतिक्रियाशील दर्शक' में बदल देता है।परंतु इस घने अंधकार में भी आशा की एक ज्योति है—विचारशीलता, आत्मचिंतन और कला। चन्द्रपाल राजभर जैसे कलाकार हमें स्मरण कराते हैं कि अभिशाप से मुक्ति भी संभव है, यदि हम भीतर झाँकने की साहसिकता रखें। एक कलाकार का कार्य केवल चित्र बनाना नहीं होता, वह समाज की चुप्पी को तोड़ता है, वह उन बातों को स्वर देता है जो हम कहते हुए डरते हैं। उनकी कला और चिंतन समाज के उस गूंगे आईने को भाषा देते हैं, जिसमें हम अपना कुरूप चेहरा देख सकें और फिर उसे बदलने की प्रेरणा पा सकें।हमें अब प्रश्न पूछने होंगे—क्या हमारी शिक्षा केवल रोज़गार के लिए है, या मानवता के निर्माण के लिए? क्या हमारे संबंध आत्मीय हैं, या केवल उपयोगी? क्या हमारी धार्मिकता केवल परंपराओं तक सीमित है, या करुणा और समता तक विस्तारित? और सबसे अहम—क्या हम अब भी संवेदनशील मनुष्य हैं, या केवल 'डेटा' बनकर जी रहे हैं?इस चिंतन का उद्देश्य केवल आलोचना नहीं है, बल्कि जागरण है। यह हमें झकझोरने आया है, यह हमें नींद से उठाकर आत्मा के आईने के सामने लाकर खड़ा करता है। यह हमें स्मरण कराता है कि हम चाहे जितना भी गिर गए हों, पुनः उठ सकते हैं। लेकिन उठने के लिए भीतर झाँकना होगा, स्वीकार करना होगा कि हम अभिशप्त हैं, और फिर उस अभिशाप को तोड़ने का साहसिक संकल्प लेना होगा।एक सच्चा समाज वहीं बनता है जहाँ संवेदना जीवित हो, जहाँ बच्चों की कल्पनाएँ खुलकर उड़ सकें, जहाँ बुज़ुर्गों की आँखों में तिरस्कार नहीं, सम्मान झलके, और जहाँ कलाकारों की पुकारें केवल दीवारों पर टँगी न रहें, बल्कि लोगों के हृदय तक पहुँचें चन्द्रपाल राजभर की यह चेतावनी हमें थमकर सोचने के लिए विवश करती है। क्या हम वाकई एक अभिशापित समाज में जी रहे हैं? यदि हाँ, तो आइए—हम एक-एक दीप जलाएँ, अपने भीतर। परिवर्तन वहीं से शुरू होगा। यही चिंतन की शक्ति है, और यही कला का असली प्रयोजन।