होली शोक दिवस ! लेखक - एम .बी राजभर आजमगढ इण्डिया

राजभर समाज के लिए
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शोक दिवस - होली
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सम्मानित साथियो,

नमस्कार

होली पर्व अगले महीने के प्रथम सप्ताह में है. यह हमारे देश का प्रमुख त्योहार है और उल्लास के साथ मनाया जाता है. परन्तु होली हमारे समाज के लिए घोर शोक का दिन बन गया जब हमारे समाज के हजारों सैनिक उसी दिन मौत के घाट उतार दिए गये थे.

जनपद रायबरेली , राजभरेली का अपभ्रंस है. इसी जिले में डलमऊ नामक गंगा नदी के किनारे एक तहसील है जहाँ भर राजा डल का शासन आज से पाँच सौ वर्ष पहले था.  उनके छोटे भाई राजा बल रायबरेली पर शासन कर रहे थे . उनके एक भाई ककोर,  ककोरन पर राज करते थे.

डलमऊ किले के दक्षिण दिशा की ओर कडा़ - मानिकपुर में जौनपुर के बादशाह इब्राहिम शाह शर्की के अधीनस्त बाबर सैयद तैनात थे. बाबर सैयद की लड़की का नाम सलमा था जो राजा डल के आकर्षण का केन्द्र बन चुकी थी. राजा डल मुसलमान शासकों से बदला लेने के लिए सलमा को जबरन अपनी रानी बनाना चाहते थे, पर बाबर सैयद राजी न था. बाबर ने जौनपुर के बादशाह शर्की से सहायता की अपी्ल की. और निर्णय लिया कि होली के दिन ही शाम को डलमऊ किले पर आक्रमण किया जाय क्योकि उस दिन राजभर लोग धूम-धाम से दिन भर होली मनाते व मदिरापान करते हैंं. जब वे नशे में रहेगे तो उन्हें हराना आसान हो जायेगा. एक विशाल सेना लेकर शर्की शाम के समय किले पर धावा बोल दिया. भयंकर मार-काट हुआ. राजभर सेना गाजर-मूली की तरह काट डाली गयी. नशे में वे युद्ध न कर सके. राजा डलदेव, बलदेव सहित उनके सभी भाई मारे गये. उनकी रानियों ने स्वयं को आग के हवाले कर दिया.
इस युद्ध में राजा डलदेव के बुढ़े ससुर रेवन्त तथा राजा डल की परिचारिका सावित्री का छः माह का पुत्र जिसका नाम "राजकलश" था, जीवित बँच गये. और रेवन्त राजकलश को लेकर भाग चला.

अंग्रेज इतिहासकारो ने मुसलमानों के ग्रन्थों का अध्ययनकर व स्वयं भ्रमण कर इसका बड़ा मार्मिक वर्णन अपने ग्रन्थों में किया है. उँचाहार तहसील के कन्दराँवा गांव के अमरबहादुर सिंह 'अमरेस' ने अपनी कालजयी रचना "राजकलश" मे इसका वर्णन बड़े ही मार्मिक ढ़ंग से किया है.यह पुस्तक पुनर्प्रकाशन के अंतिम दौर में है और अप्रिल के अंत तक अपने हाथ में आ जायेगी.

रायबरेली जिले के लगभग 80 किलो. मी. की परिधि तक आज भी सभी जातियो द्वारा होली के दिन से सात दिन तक शोक मनाया जाता है, और औरतें राजा डल के सम्मान में अपने तन से जेवर उतार देती हैं. उस क्षेत्र के राजभर स्वयं कोे अहीरों मे सम्मिलित कर लिया है और "भरौटिया अहीर" कहलाते हैं. कुछ राजभर वहाँ से पलायन कर सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ क्रास करते हुए पूरब की ओर चले गये.

बड़े दुःख के साथ, वेदनाभरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हम आज कैसा व्यवहार होली के दिन करते हैं. मैं इसका कारण अपने इतिहास के प्रति अवहेलनापर्ण व्यवहार व अज्ञानता को मानता हूँ. आज अपने समाज में होली को लेकर उल्लासपूर्ण वातावरण बना दिया गया है जो केवल मूर्खता का कारण बन गया है.

जिसे उक्त तथ्यों की जाँच/सत्यापन करनी है वे डलमऊ जाकर इसका सत्यापन कर सकते हैं. हमारे संगठन के लोग होली मिलन समारोह रखते हैं और अपने पूर्वजों को, जिनका खून हमारी नशों में बहता है, उसे भी कलंकित कर रहै हैं. इन्हें सद्बुद्धि कब आयेगी. धन्य है राजभर समाज और उसके संगठन.
मेरा विनम्र निवेदन है कि होली के दिन एकत्रित होकर शोक मनाएं और शराब न पीने की शपथ लें तभी हमारे रणबाँकुरों के लिए सच्ची श्रद्धान्जलि होगी.

                       धन्यवाद

                   एम.बी.राजभर

                  21-02-2018h

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