Monday, October 7, 2024

सरकारी विद्यालयों की तरफ लोटो भारत-आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर

सरकारी विद्यालयों की ओर रुख करना आज के समय की सबसे अहम जरूरतों में से एक है। समाज में शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करने के लिए सरकारी विद्यालयों का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में सरकारी विद्यालयों की स्थिति और उनके प्रति समाज के नजरिए में कई बदलाव आए हैं। एक समय था जब इन विद्यालयों को शिक्षा के केंद्र के रूप में देखा जाता था और समाज का हर वर्ग यहाँ अपने बच्चों को भेजने में गौरव महसूस करता था। लेकिन निजी विद्यालयों के उभार और गुणवत्ता के प्रति लोगों की चिंताओं ने सरकारी विद्यालयों की ओर से एक नकारात्मक धारणाओं का निर्माण कर दिया है।

आज स्थिति यह है कि अधिकांश मध्यम वर्गीय और उच्च मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजने से कतराते हैं। इसका एक बड़ा कारण इन विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की कमी, शिक्षकों की अनुपस्थिति, और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी के रूप में देखा जाता है। लेकिन यह स्थिति केवल इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि इन विद्यालयों की तरफ समाज और सरकार दोनों का ध्यान कम हो गया है। सरकारी विद्यालयों की हालत सुधर सकती है, बशर्ते हम सामूहिक रूप से इनके सुधार के लिए प्रतिबद्ध हों।

सरकारी विद्यालयों का उद्देश्य केवल साक्षरता दर को बढ़ाना नहीं है, बल्कि एक समावेशी समाज का निर्माण करना भी है। ये विद्यालय समाज के हर वर्ग के बच्चों को समान रूप से शिक्षा प्रदान करने का कार्य करते हैं, जिससे सामाजिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। सरकारी विद्यालयों की मजबूत उपस्थिति यह सुनिश्चित करती है कि देश के सबसे गरीब और वंचित तबकों के बच्चे भी शिक्षा से वंचित न रहें। जब हम सरकारी विद्यालयों की अनदेखी करते हैं, तो असल में हम उन बच्चों के भविष्य से समझौता कर रहे होते हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं और निजी विद्यालयों की महंगी फीस वहन नहीं कर सकते।

वास्तव में, सरकारी विद्यालयों की तरफ ध्यान देने की जरूरत केवल सरकार की नहीं, बल्कि समाज की भी है। समाज में जागरूकता बढ़ाने और लोगों का सरकारी विद्यालयों के प्रति दृष्टिकोण बदलने की जिम्मेदारी हर नागरिक की है। हमें इन विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए सामूहिक प्रयास करने चाहिए। इसके लिए, सरकारी नीति और बजट आवंटन के साथ-साथ, स्वयंसेवी संगठनों और स्थानीय समुदायों की भी भागीदारी होनी चाहिए। यदि शिक्षकों का प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम की गुणवत्ता, और बुनियादी ढांचे को मजबूत किया जाए, तो कोई कारण नहीं कि सरकारी विद्यालयों की स्थिति सुधर न सके।

हम यह नहीं कह सकते कि सभी सरकारी विद्यालय खराब स्थिति में हैं। देश के कई हिस्सों में ऐसे भी सरकारी विद्यालय हैं जिन्होंने अपने नवाचारों और प्रशासनिक सुधारों के कारण निजी विद्यालयों को भी मात दी है। इन विद्यालयों के मॉडल का अध्ययन करके और उन्हें पूरे देश में लागू करके हम सरकारी शिक्षा प्रणाली को मजबूती दे सकते हैं। इसका एक उदाहरण केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों से लिया जा सकता है, जहाँ सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर देश के कई निजी विद्यालयों से बेहतर है। वहाँ पर सरकार, शिक्षक और समाज के सामूहिक प्रयासों ने सरकारी शिक्षा प्रणाली को एक नई दिशा दी है।

सरकारी विद्यालयों की ओर लौटना महज एक विकल्प नहीं, बल्कि समय की आवश्यकता है। यदि हम शिक्षा के इस महत्वपूर्ण तंत्र की उपेक्षा करते हैं, तो इसका दुष्परिणाम समाज के हर वर्ग को भुगतना पड़ेगा। सरकारी विद्यालयों में सुधार की दिशा में कदम उठाने के लिए नीति-निर्माताओं को भी अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। शिक्षा के लिए बजट आवंटन में वृद्धि, शिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण, विद्यालयों की निगरानी और मूल्यांकन प्रणाली को सुधारने की दिशा में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।

समाज के प्रत्येक सदस्य को भी यह समझना होगा कि शिक्षा केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक उन्नति के लिए भी आवश्यक है। हमें एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जहाँ सरकारी और निजी विद्यालयों के बीच कोई अंतर न रह जाए, और प्रत्येक बच्चा समान अवसरों का हकदार हो। केवल तभी हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर पाएंगे जो शिक्षा के आधार पर न केवल साक्षर, बल्कि वास्तव में प्रबुद्ध और सशक्त हो।

सरकारी विद्यालयों की महत्ता केवल शिक्षा तक सीमित नहीं है; ये सामाजिक विकास और सांस्कृतिक एकता के भी केंद्र हैं। यहाँ विभिन्न पृष्ठभूमि, जाति, धर्म और आर्थिक स्तर के बच्चे एक ही छत के नीचे पढ़ते हैं, जिससे उन्हें समानता, भाईचारा और आपसी सहयोग की शिक्षा मिलती है। यह विविधता बच्चों को वास्तविक जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करती है, जिससे वे एक संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बनते हैं। यदि हम इन विद्यालयों की अनदेखी करते हैं, तो हम इस सामाजिक एकता के स्रोत को कमजोर कर रहे हैं, जो कि अंततः समाज में विभाजन और असमानता को जन्म देगा।

यह भी समझना आवश्यक है कि सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा केवल शिक्षा की गुणवत्ता पर ही नहीं, बल्कि देश के विकास के हर पहलू पर प्रभाव डालती है। यदि आज हम इन विद्यालयों की ओर नहीं लौटते और उनकी स्थिति को बेहतर नहीं करते, तो भविष्य में गरीब और वंचित वर्ग की पूरी पीढ़ी शिक्षा से वंचित रह सकती है। यह शिक्षा की असमानता भविष्य में आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को और भी गहरा कर देगी, जिससे समाज में अशांति और असंतोष की भावना बढ़ेगी।

आर्थिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो सरकारी विद्यालयों में निवेश देश के दीर्घकालिक विकास के लिए लाभदायक हो सकता है। सरकारी शिक्षा प्रणाली को सुधारने के लिए किए गए निवेश से न केवल रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं, बल्कि इससे कुशल और साक्षर कार्यबल का भी निर्माण होता है। एक सशक्त सरकारी शिक्षा प्रणाली देश की उत्पादकता को बढ़ाने में सहायक हो सकती है। इसके अतिरिक्त, सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र अपने परिवारों और समुदायों में भी शिक्षा का प्रसार करते हैं, जिससे एक सकारात्मक श्रृंखला प्रभाव (chain effect) उत्पन्न होता है।

आम धारणा के विपरीत, सरकारी विद्यालयों का पुनरुत्थान असंभव नहीं है। इसके लिए हमें केवल कुछ मूलभूत सुधारों और दृष्टिकोण के बदलाव की आवश्यकता है। सबसे पहले, सरकारी विद्यालयों को बुनियादी ढांचे की दृष्टि से सुदृढ़ करना होगा। कई सरकारी विद्यालय आज भी भवन, शौचालय, पेयजल, और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इन सुविधाओं का अभाव शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसके अलावा, शिक्षकों की संख्या बढ़ाना, उनकी नियमित ट्रेनिंग कराना, और उन्हें शिक्षण कार्य के प्रति प्रेरित करना भी अत्यंत आवश्यक है।

सरकारी विद्यालयों में पारदर्शिता और जवाबदेही भी महत्वपूर्ण पहलू हैं। इसके लिए सरकार को शिक्षा प्रणाली की निगरानी और मूल्यांकन के लिए एक मजबूत तंत्र विकसित करना चाहिए। विद्यालयों का नियमित निरीक्षण, छात्रों और अभिभावकों की प्रतिक्रियाओं का संकलन, और शिक्षकों की दक्षता की समय-समय पर समीक्षा इन संस्थानों की कार्यक्षमता को बढ़ा सकती है। एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी चाहिए जो बच्चों की शैक्षणिक प्रगति के साथ-साथ उनके सर्वांगीण विकास पर भी ध्यान दे।

एक और अहम बात जो सरकारी विद्यालयों की स्थिति सुधारने में मददगार हो सकती है, वह है सामुदायिक भागीदारी। जब तक समाज के लोग इन विद्यालयों के प्रति जागरूक और संवेदनशील नहीं होंगे, तब तक स्थिति में बदलाव मुश्किल है। हमें सरकारी विद्यालयों को केवल ‘गरीबों के विद्यालय’ समझने की मानसिकता से बाहर आना होगा। सामुदायिक भागीदारी से न केवल विद्यालयों की कार्यक्षमता में सुधार होगा, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच समन्वय और सहयोग की भावना भी विकसित होगी।

इसके अतिरिक्त, सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के आधुनिक तरीकों को अपनाने की भी आवश्यकता है। तकनीक का समावेश, डिजिटल लर्निंग, स्मार्ट क्लासरूम और नवीन शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग छात्रों को समकालीन दुनिया के लिए तैयार करेगा। शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम में सुधार, विषयों के व्यावहारिक और रचनात्मक दृष्टिकोण को शामिल करना भी जरूरी है। यह सब तभी संभव होगा जब सरकार, समाज और शिक्षक तीनों मिलकर एक साझा दृष्टिकोण से कार्य करेंगे।

सरकारी विद्यालयों की तरफ लौटना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये केवल भवन नहीं, बल्कि एक संपूर्ण पीढ़ी के सपनों और भविष्य की नींव हैं। यदि आज हम इन विद्यालयों की तरफ नहीं लौटे, तो भविष्य में शिक्षा केवल एक विशेष वर्ग का अधिकार बनकर रह जाएगी, जो एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज के लिए घातक होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हर बच्चा, चाहे वह किसी भी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से आता हो, उसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। सरकारी विद्यालयों की तरफ लौटकर ही हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ शिक्षा केवल साक्षरता का माध्यम न होकर वास्तविक सामाजिक परिवर्तन की आधारशिला बने।


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