दो प्रकार से लोग गुलाम बनते हैं एक अभाव में और दूसरा प्रभाव से इसमें आसाक्षर के साथ कुछ पढ़े-लिखे लोग और कुछ कर्मचारी, अधिकारी, और अन्य लोग भी आते हैं आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का एक चिंतन
मनुष्य के विचार और व्यवहार दो शक्तिशाली तत्व हैं, जो उसे या तो स्वतंत्र बनाते हैं या गुलामी की जंजीरों में जकड़ देते हैं। गुलामी का यह स्वरूप केवल शारीरिक नहीं होता, बल्कि मानसिक, भावनात्मक और बौद्धिक स्तर पर भी देखा जा सकता है। आमतौर पर लोग दो कारणों से गुलाम बनते हैं—एक अभाव में और दूसरा प्रभाव में। यह स्थिति समाज के हर वर्ग में देखने को मिलती है, चाहे वह आम नागरिक हो, कोई कर्मचारी हो, अधिकारी हो या कोई पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी।
अभाव में गुलामी
जब किसी व्यक्ति के पास मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन नहीं होते, तो वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किसी और पर निर्भर हो जाता है। यह निर्भरता धीरे-धीरे उसकी स्वतंत्र सोच और निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करने लगती है। आर्थिक तंगी, संसाधनों की कमी, सामाजिक असुरक्षा और अवसरों की अनुपलब्धता के कारण व्यक्ति मजबूर होकर उन शर्तों को स्वीकार कर लेता है, जो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से गुलाम बना देती हैं। उदाहरणस्वरूप, किसी गरीब मजदूर को अगर अपने परिवार का पेट पालना है, तो उसे अमानवीय परिस्थितियों में काम करना भी स्वीकार करना पड़ता है। उसकी सोच और आत्मसम्मान धीरे-धीरे दबते जाते हैं, क्योंकि उसके पास कोई और विकल्प नहीं बचता।
प्रभाव में गुलामी
दूसरी ओर, जब कोई व्यक्ति किसी प्रभाव के कारण अपनी स्वतंत्र सोच खो देता है, तब भी वह गुलामी का शिकार हो जाता है। यह प्रभाव कई रूपों में सामने आता है—राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक या फिर व्यक्तिगत। प्रभावशाली लोग अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए दूसरों की सोच को नियंत्रित करते हैं, जिससे वे उनके अनुसार व्यवहार करने लगते हैं। यह स्थिति विशेष रूप से पढ़े-लिखे लोगों, कर्मचारियों और अधिकारियों में अधिक देखने को मिलती है।
एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति जो सत्य और असत्य में भेद करने में सक्षम होता है, वह भी कई बार प्रभाव में आकर अपने विवेक का प्रयोग नहीं करता। वह किसी संगठन, विचारधारा, या व्यक्ति विशेष के प्रभाव में अपनी स्वतंत्र सोच को दबा देता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी सरकारी कर्मचारी को गलत आदेश दिया जाता है, लेकिन वह अपने उच्च अधिकारियों के दबाव में उसे मान लेता है, तो यह प्रभाव में गुलामी की स्थिति है। इसी तरह, कई बुद्धिजीवी, लेखक और पत्रकार भी किसी राजनीतिक या व्यावसायिक हित के प्रभाव में आकर सच को छिपाने या तोड़-मरोड़कर पेश करने लगते हैं। यह प्रभाव उनकी वैचारिक स्वतंत्रता को समाप्त कर देता है।
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण:
मानव मस्तिष्क सहज रूप से स्वतंत्र रहना चाहता है, लेकिन जब परिस्थितियाँ विपरीत होती हैं, तो वह स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए समझौता करने लगता है। यह समझौता धीरे-धीरे आदत बन जाता है और व्यक्ति अपनी मानसिक स्वतंत्रता को खो देता है। इसे ‘सीखी हुई असहायता’ (Learned Helplessness) कहा जा सकता है, जिसमें व्यक्ति यह मान लेता है कि वह जो कुछ भी कर रहा है, वही उसकी नियति है और उससे बाहर निकलना असंभव है।
समाधान की दिशा में चिंतन:
इस समस्या का समाधान केवल आर्थिक या सामाजिक सुधार से नहीं हो सकता, बल्कि मानसिक स्तर पर भी आवश्यक परिवर्तन लाने होंगे। शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं होना चाहिए, बल्कि व्यक्ति में तर्कशीलता और स्वतंत्र सोच विकसित करना भी होना चाहिए। जो लोग अभाव में हैं, उनके लिए संसाधनों की उपलब्धता आवश्यक है, लेकिन साथ ही उन्हें यह भी सिखाना होगा कि वे मानसिक रूप से मजबूत रहें और परिस्थितियों से समझौता न करें।
वहीं, जो प्रभाव में हैं, उनके लिए आत्मविश्लेषण और नैतिक जागरूकता आवश्यक है। उन्हें यह समझना होगा कि उनके विचार और निर्णय उनके अपने होने चाहिए, न कि किसी बाहरी दबाव या प्रभाव से संचालित। एक कलाकार, लेखक, पत्रकार, या शिक्षक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह होनी चाहिए कि वह समाज को मानसिक गुलामी से मुक्त करने के लिए काम करे, न कि स्वयं किसी प्रभाव में आकर अपनी स्वतंत्रता खो दे।
मानसिक स्वतंत्रता ही सच्ची स्वतंत्रता है। जब व्यक्ति अपनी सोच को प्रभाव और अभाव से मुक्त कर लेता है, तभी वह वास्तव में एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर जीवन जी सकता है।
आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर
लेखक SWA MUMBAI
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