Sunday, March 9, 2025

कभी-कभी लोग अर्थ का अनर्थ समझ बैठते हैं कहा जाता है आम समझ बैठते हैं इमली आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का एक चिंतन

कभी-कभी लोग अर्थ का अनर्थ समझ बैठते हैं कहा जाता है आम समझ बैठते हैं इमली आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का एक चिंतन

मानव स्वभाव की सबसे जटिल विशेषताओं में से एक है उसकी व्याख्या करने की प्रवृत्ति—कभी-कभी बिना गहराई से समझे ही किसी बात का निष्कर्ष निकाल लेना। संचार की इस त्रुटि का परिणाम अक्सर गलतफहमियों, अनावश्यक विवादों और सामाजिक असंतुलन के रूप में सामने आता है। जब लोग किसी संदेश, शब्द, या कला के पीछे के वास्तविक भाव को समझे बिना ही उस पर अपनी धारणाएँ आरोपित कर देते हैं, तब अर्थ का अनर्थ होने की स्थिति उत्पन्न होती है। यह समस्या सिर्फ व्यक्तिगत वार्तालाप तक सीमित नहीं है, बल्कि साहित्य, कला, राजनीति, धर्म और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी देखी जाती है।

मनुष्य की सोचने और समझने की प्रक्रिया अनेक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारकों से प्रभावित होती है। मस्तिष्क एक जटिल संरचना है जो सूचना को संसाधित करने के लिए पूर्व-अनुभव, संस्कार, शिक्षा और व्यक्तिगत धारणाओं का उपयोग करता है। जब कोई व्यक्ति किसी सूचना को ग्रहण करता है, तो वह उसे अपने पूर्वाग्रहों और अनुभवों के चश्मे से देखता है, जिससे उसकी व्याख्या अन्य लोगों से भिन्न हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी चित्रकार ने एक ऐसी पेंटिंग बनाई जिसमें लाल और काले रंगों का अधिक प्रयोग किया गया हो, तो कुछ लोग इसे क्रोध और आक्रोश का प्रतीक मान सकते हैं, जबकि कलाकार ने शायद उसमें गहराई, संघर्ष और शक्ति का भाव भरा हो।

आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का यह चिंतन कि "कहा जाता है आम, समझ बैठते हैं इमली" इसी प्रवृत्ति को दर्शाता है। यह कथन केवल भाषाई स्तर पर ही नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी हमारी व्याख्या करने की सीमा को उजागर करता है। जब कोई व्यक्ति कुछ कहता है, तो आवश्यक नहीं कि श्रोता उसे उसी रूप में ग्रहण करे। एक ही शब्द अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग अर्थ रख सकता है। यही कारण है कि साहित्य और कला में प्रतीकों की व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में होती है।

इस समस्या को गहराई से समझने के लिए एक और उदाहरण देखें। मान लीजिए कि कोई वैज्ञानिक कहता है कि "परमाणु विभाजन से ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।" यदि यह कथन किसी वैज्ञानिक समुदाय तक पहुँचे, तो वे इसे ऊर्जा उत्पादन और न्यूक्लियर फिजिक्स के संदर्भ में समझेंगे। लेकिन यदि यही कथन किसी ऐसे व्यक्ति तक पहुँचे जो केवल द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभावों से परिचित है, तो वह इसे नकारात्मक रूप में ग्रहण कर सकता है, क्योंकि उसके लिए परमाणु विभाजन का अर्थ केवल बम और विनाश से जुड़ा होगा। इस तरह, व्याख्या करने की प्रक्रिया में अनुभव और पूर्वग्रह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह प्रवृत्ति हमारे संज्ञानात्मक पूर्वग्रह (cognitive biases) के कारण भी होती है। कन्फर्मेशन बायस (Confirmation Bias) इसका प्रमुख उदाहरण है, जहाँ लोग वही अर्थ निकालते हैं जो उनकी पहले से बनी धारणा का समर्थन करता हो। इसी तरह हेलो इफ़ेक्ट (Halo Effect) के कारण लोग किसी व्यक्ति, विचार या वस्तु के एक पहलू को देखकर उसके अन्य पहलुओं के बारे में भी निष्कर्ष निकाल लेते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई कलाकार सामाजिक मुद्दों पर कलाकृति बनाता है, तो कुछ लोग उसे सामाजिक कार्यकर्ता मान सकते हैं, जबकि उसका उद्देश्य केवल कलाकृति के माध्यम से भावनाएँ व्यक्त करना हो सकता है।

समाज में इस समस्या को कम करने के लिए हमें अपनी व्याख्या करने की क्षमता को अधिक तार्किक और खुली सोच वाला बनाना होगा। इसका एक तरीका यह है कि हम पहले सुनी और देखी गई बातों का पूरा संदर्भ समझें और फिर निष्कर्ष निकालें। यह सिर्फ कला या भाषा तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू में लागू होता है। उदाहरण के लिए, जब कोई बच्चा माता-पिता से कहता है कि "मुझे अकेला छोड़ दो," तो माता-पिता इसे अनुशासनहीनता मान सकते हैं, जबकि वास्तव में यह बच्चा मानसिक रूप से किसी तनाव से गुजर रहा हो सकता है।
संवाद और व्याख्या के दौरान हमें पूर्वग्रहों से बचकर निष्पक्षता को अपनाने की आवश्यकता है। कोई भी संचार केवल शब्दों तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसके पीछे की भावना, संदर्भ और व्यक्ति की मानसिक स्थिति भी उसमें शामिल होती है। जब तक हम केवल सतही रूप से बातों को ग्रहण करते रहेंगे, तब तक "कहा जाता है आम, समझ बैठते हैं इमली" जैसी स्थितियाँ बनी रहेंगी। वास्तविक समझदारी इसी में है कि हम चीजों को केवल अपनी दृष्टि से नहीं, बल्कि एक व्यापक और संतुलित दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करें।
 आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर 
लेखक SWA MUMBAI 

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