समाज आपका साथ कभी नहीं देगा बल्कि आपका उपवास ही उड़ायेगा इसलिए समाज को पीछे छोड़कर जीना शुरू करो वरना यही समाज के पढ़े-लिखे लोग आपको पीछे खींचनें और दबाने की भरपूर कोशिश करेंगे सामने तो नहीं आएंगे लेकिन दूसरों के सहारे आपको नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का एक चिंतन
समाज में स्वीकृति और अस्वीकृति की अवधारणा सदियों से चली आ रही है। जब कोई व्यक्ति अपनी अलग राह बनाता है, अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करता है या समाज की पारंपरिक सोच से अलग हटकर कुछ नया करने का प्रयास करता है, तो अक्सर उसे आलोचनाओं, विरोध, और अवहेलना का सामना करना पड़ता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि समाज हमेशा स्थिरता और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने की प्रवृत्ति रखता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह अपनी पहचान को समाज के साथ जोड़कर देखता है। लेकिन जब यही समाज किसी व्यक्ति को उसके विचारों के कारण हतोत्साहित करने लगता है, तो वह मानसिक दबाव में आ जाता है। खासकर जब कोई व्यक्ति अपने जीवन में संघर्ष कर रहा होता है, अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहा होता है, तब समाज उसके संघर्ष को पहचानने की बजाय उसका उपहास उड़ाता है। यह एक प्रकार की मानसिकता है जिसे "क्रैब मेंटेलिटी" (Crab Mentality) कहा जाता है—जिसमें जैसे ही कोई व्यक्ति ऊपर उठने की कोशिश करता है, बाकी उसे नीचे खींचने लगते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो अधिकांश महान व्यक्तियों को समाज से ही सबसे अधिक विरोध का सामना करना पड़ा है। गैलिलियो को जब यह कहा गया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, तो तत्कालीन समाज ने उसे नकार दिया और उसे दंडित किया गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब दलितों के अधिकारों की बात की, तो समाज के ही कुछ प्रभावशाली वर्गों ने उन्हें नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास किया। स्वामी विवेकानंद जब भारतीय संस्कृति को विश्व मंच पर रख रहे थे, तब भी कई लोग उनके आलोचक थे।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समाज के पढ़े-लिखे और प्रभावशाली लोग भी परिवर्तन से डरते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति सामाजिक ढांचे को चुनौती दे और अपनी अलग पहचान बनाए। यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति अपने विचारों के साथ आगे बढ़ता है, तो उसे प्रत्यक्ष रूप से विरोध का सामना नहीं करना पड़ता, बल्कि परोक्ष रूप से उसका मज़ाक उड़ाया जाता है, उसे हतोत्साहित किया जाता है, और उसे दूसरों के माध्यम से दबाने की कोशिश की जाती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो, यह समाज की 'सामूहिक मानसिकता' (Group Psychology) का परिणाम है। जब एक समूह किसी व्यक्ति को अपने नियमों से हटकर चलते हुए देखता है, तो उसे असहजता महसूस होती है। यह असहजता डर से उत्पन्न होती है—डर इस बात का कि यदि एक व्यक्ति सफल हो गया, तो बाकी लोगों को अपनी सीमित सोच को छोड़ना पड़ेगा। और यहीं से समाज की प्रतिरोधी मानसिकता जन्म लेती है।
व्यक्ति को यदि अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो उसे समाज की परवाह किए बिना आगे बढ़ना होगा। गांधी जी ने कहा था, "पहले वे आपको नज़रअंदाज़ करेंगे, फिर आप पर हंसेंगे, फिर वे लड़ेंगे, और अंत में आप जीत जाएंगे।" यह प्रक्रिया हर उस व्यक्ति के जीवन में घटित होती है जो अपनी राह खुद चुनता है।
इसलिए समाज के बंधनों में बंधकर जीने की बजाय, व्यक्ति को अपनी आंतरिक शक्ति और आत्मविश्वास को बढ़ाना चाहिए। उसे समझना होगा कि समाज का कार्य केवल प्रतिक्रिया देना है, निर्णय स्वयं व्यक्ति को लेना होता है। जब वह अपने विचारों और सपनों पर अडिग रहेगा, तब यही समाज जो आज उपहास कर रहा है, कल उसकी प्रशंसा करेगा।
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