शोध पत्र प्राथमिक शिक्षा में लर्निंग क्राइसिस समस्या एवं समाधान
शोधार्थी : चन्द्रपाल राजभर
सारांश
प्राथमिक शिक्षा एक राष्ट्र की बुनियाद होती है, और यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इस स्तर पर बच्चों में पढ़ने, लिखने, और गणितीय कौशल का सुदृढ़ विकास हो। लेकिन, आज के समय में प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में लर्निंग क्राइसिस एक गहरी समस्या बन चुकी है। यह शोध पत्र इस समस्या के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करता है और उसके संभावित समाधानों पर चर्चा करता है। शिक्षकों की भूमिका, विद्यालयों की उपलब्ध सुविधाएं, बच्चों के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम और सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों की समीक्षा के आधार पर इस समस्या का निराकरण प्रस्तुत किया गया है।
परिचय
प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को बुनियादी ज्ञान और कौशल प्रदान करना होता है, जो उनके भविष्य के शिक्षा और व्यक्तिगत विकास के लिए आवश्यक है। भारत में सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) जैसे कार्यक्रमों के बावजूद, देश के कई हिस्सों में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। कई बच्चे प्राथमिक विद्यालय से उत्तीर्ण होने के बाद भी न्यूनतम साक्षरता और गणना क्षमता हासिल नहीं कर पाते। इसे ही शिक्षा क्षेत्र में लर्निंग क्राइसिस कहा जाता है।
लर्निंग क्राइसिस: समस्या के मुख्य कारण
1. शिक्षकों की कमी और अयोग्यता
अनेक सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। जिन स्कूलों में शिक्षक हैं, उनमें से कई शिक्षक अच्छी तरह से प्रशिक्षित नहीं हैं। ASER (Annual Status of Education Report) 2022 के अनुसार, केवल 50% बच्चे कक्षा 5 तक पहुंचते-पहुंचते सरल पाठ को भी पढ़ने में सक्षम होते हैं। इसका मुख्य कारण शिक्षकों का बच्चों के शैक्षिक विकास में रुचि और उपयुक्त प्रशिक्षण का अभाव है।
उदाहरण एवं साक्ष्य
शिक्षकों की कमी और अयोग्यता भारत में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है, और इसके कई ठोस साक्ष्य हैं। यहां कुछ प्रमुख साक्ष्य और रिपोर्टें प्रस्तुत हैं:
1. ASER रिपोर्ट (Annual Status of Education Report) 2022
ASER की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 10% से अधिक स्कूलों में न्यूनतम शिक्षक संख्या की कमी पाई गई है। इसके अलावा, कई शिक्षक निर्धारित योग्यता के मानकों को पूरा नहीं करते, जिससे वे बच्चों की आवश्यकताओं के अनुसार पढ़ाने में सक्षम नहीं होते। इस रिपोर्ट के अनुसार, कई स्कूलों में गणित और भाषा की आवश्यक शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं, जिससे बच्चों के पढ़ने और गणना के कौशल में कमी देखी गई है।
2. UNESCO रिपोर्ट, 2021
UNESCO की रिपोर्ट "State of the Education Report for India 2021" के अनुसार, भारत को स्कूल स्तर पर लगभग 1 मिलियन शिक्षकों की आवश्यकता है, खासकर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में। इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट बताती है कि भारत के सरकारी स्कूलों में लगभग 10% शिक्षक अप्रशिक्षित हैं या उन्हें प्रभावी शिक्षा देने का प्रशिक्षण नहीं मिला है। इससे बच्चों के सीखने के अनुभव पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
3. नैशनल अचीवमेंट सर्वे (NAS), 2017 और 2021
NAS 2021 के आंकड़ों के अनुसार, शिक्षकों के प्रशिक्षण और शिक्षा का स्तर बच्चों के सीखने की उपलब्धियों पर सीधा प्रभाव डालता है। इस सर्वे में पाया गया कि प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव में कक्षा 5 के बच्चों का बुनियादी भाषा और गणित में प्रदर्शन बहुत कमजोर रहा। उदाहरण के लिए, केवल 45%
2. अप्रभावी पाठ्यक्रम
कई विद्यालयों में प्रचलित पाठ्यक्रम बच्चों की उम्र और समझ के अनुसार नहीं होते हैं। बच्चों के लिए सामग्री को सरल और रोचक बनाने की बजाय उसे एक कठिन बोझ की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जिससे वे शिक्षा के प्रति रुचि खो देते हैं।
उदाहरण एवं साक्ष्य -
भारत में प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का अप्रभावी होना एक महत्वपूर्ण समस्या है, जो बच्चों के सीखने और उनके बौद्धिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रहा है। इस समस्या के संबंध में कई शोध और साक्ष्य उपलब्ध हैं जो दर्शाते हैं कि वर्तमान पाठ्यक्रम बच्चों की समझ, उनकी जरूरतों, और उनकी उम्र के अनुसार उपयुक्त नहीं है। यहाँ कुछ प्रमुख साक्ष्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं
1. NCERT द्वारा किए गए अध्ययन (National Council of Educational Research and Training)
NCERT के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रचलित प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बच्चों की आयु और उनकी सीखने की गति के अनुकूल नहीं है। पाठ्यक्रम का स्वरूप जटिल और अधिक सैद्धांतिक है, जिससे बच्चों को विषयों की मौलिक समझ विकसित करने में कठिनाई होती है। बच्चों की समझ का स्तर और उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर सामग्री को सरल और रोचक बनाने की आवश्यकता है, जो वर्तमान पाठ्यक्रम में काफी हद तक अनदेखी की गई है।
2. ASER रिपोर्ट (Annual Status of Education Report) 2018
ASER 2018 रिपोर्ट के अनुसार, कक्षा 5 के छात्रों में से लगभग 50% बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं। इसका एक प्रमुख कारण अप्रभावी पाठ्यक्रम है, जिसमें बच्चों की मौलिक समझ को नज़रअंदाज़ किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों को जटिल विषय पढ़ाए जाते हैं, लेकिन उनकी बुनियादी समझ को विकसित करने पर जोर नहीं दिया जाता, जिससे बच्चे रटंत (रटे हुए) ज्ञान तक ही सीमित रह जाते हैं।
3. UNESCO की रिपोर्ट (State of the Education Report for India 2019)
UNESCO की इस रिपोर्ट में भारत के पाठ्यक्रम को जटिल और सैद्धांतिक बताया गया है। इसके अनुसार, पाठ्यक्रम में बच्चों के दैनिक जीवन से संबंधित विषयों का अभाव है, जिससे वे अपने परिवेश से जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं। यह उनके सीखने में रुचि को कम करता है और वे विषयों को केवल परीक्षा के उद्देश्य से पढ़ने लगते हैं। इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि पाठ्यक्रम में बच्चों की उम्र और मानसिक स्तर के अनुसार सरल और वास्तविक जीवन से जुड़े उदाहरणों को शामिल करना चाहिए।
4. Pratham NGO का अध्ययन
Pratham एक गैर-सरकारी संगठन है, जिसने कई बार भारतीय शिक्षा व्यवस्था का आकलन किया है। Pratham के अनुसार, कक्षा 3 तक पहुँचने वाले कई बच्चे कक्षा 1 के स्तर की पढ़ाई भी समझने में असमर्थ होते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि पाठ्यक्रम में बच्चों की मौलिक जरूरतों की अनदेखी की गई है। वे बताते हैं कि बच्चों को बुनियादी पढ़ाई जैसे पढ़ना और लिखना ठीक से सिखाए बिना ही जटिल विषय पढ़ाना उन्हें शिक्षा से दूर कर देता है।
5. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020)
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी अप्रभावी पाठ्यक्रम पर चिंता जताई गई है। NEP 2020 में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए, और पाठ्यक्रम को अधिक लचीला, रोचक और सृजनात्मक बनाना चाहिए। नीति के अनुसार, वर्तमान पाठ्यक्रम में सुधार करके उसे अधिक व्यावहारिक और सीखने योग्य बनाना आवश्यक है ताकि बच्चों में ज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न हो और वे उसे अपने जीवन से जोड़कर समझ सकें।
इन साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारत में प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम को बच्चों की समझ और उनकी जरूरतों के अनुकूल बनाकर ही हम प्राथमिक शिक्षा में सुधार कर सकते हैं।
3. पर्याप्त संसाधनों का अभाव
ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में स्थित विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की कमी एक बड़ी समस्या है। पर्याप्त कक्षाएं, पुस्तकालय, शौचालय, और पेयजल जैसी सुविधाओं की कमी के कारण बच्चों का स्कूल में आना और शिक्षा प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
उदाहरण एवं साक्ष्य -
भारत में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों की कमी एक महत्वपूर्ण समस्या है, जो बच्चों के समग्र विकास और गुणवत्ता-युक्त शिक्षा में बाधा उत्पन्न कर रही है। यहाँ कुछ प्रमुख साक्ष्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं जो यह दर्शाते हैं कि कैसे संसाधनों की कमी से प्राथमिक शिक्षा प्रभावित हो रही है:
1. ASER रिपोर्ट (Annual Status of Education Report) 2022
ASER 2022 रिपोर्ट के अनुसार, देश के ग्रामीण प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे और शिक्षण-सामग्री की कमी पाई गई है। लगभग 30% से अधिक स्कूलों में आवश्यक सुविधाएं, जैसे शुद्ध पेयजल, शौचालय, और पुस्तकालयों का अभाव है। इसके अतिरिक्त, शिक्षण सामग्री और प्रयोगशाला के संसाधनों की भी कमी है, जिसके कारण बच्चे विज्ञान और गणित जैसे महत्वपूर्ण विषयों में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते।
2. UNESCO की रिपोर्ट, 2021
UNESCO की "State of the Education Report for India 2021" के अनुसार, भारत के कई सरकारी स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात अत्यधिक अधिक है, क्योंकि शिक्षकों और कक्षाओं की संख्या अपर्याप्त है। संसाधनों के अभाव में शिक्षक एक ही समय में अधिक छात्रों पर ध्यान नहीं दे पाते, जिससे बच्चों की शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। साथ ही, डिजिटल संसाधनों की कमी भी बच्चों को आधुनिक शिक्षण तकनीकों से दूर रखती है।
3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020)
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में संसाधनों की कमी को ध्यान में रखते हुए स्कूलों में बुनियादी ढांचे और आधुनिक शिक्षण उपकरणों की उपलब्धता पर जोर दिया गया है। NEP में कहा गया है कि प्राथमिक शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए शैक्षिक सामग्री, स्मार्ट क्लासरूम, और लाइब्रेरी जैसी सुविधाएं सभी स्कूलों में उपलब्ध होनी चाहिए। इस नीति के तहत, शिक्षकों और छात्रों को आवश्यक शैक्षिक संसाधनों तक पहुंच सुनिश्चित करने की योजना बनाई गई है, परंतु इसका क्रियान्वयन धीमी गति से हो रहा है।
4. World Bank का अध्ययन, 2018
वर्ल्ड बैंक द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि भारत के सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र व्यय काफी कम है, और इसके परिणामस्वरूप पर्याप्त शैक्षणिक सामग्री का अभाव है। इस रिपोर्ट में बताया गया कि प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को बुनियादी सुविधाएँ, जैसे कि प्रयोगशालाएं, कंप्यूटर लैब और खेल सामग्री, नहीं मिल पाती हैं। इन सुविधाओं के अभाव में बच्चों का समग्र विकास अवरुद्ध होता है और वे नई तकनीकों के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं।
5. पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण सामग्री की कमी
देश के कई राज्यों में बच्चों को पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण सामग्री की कमी का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्र की शुरुआत में बच्चों को समय पर पाठ्यपुस्तकें नहीं मिल पातीं। इसके कारण, बच्चे अपने सिलेबस को समय पर पूरा नहीं कर पाते और उनकी शिक्षा में व्यवधान उत्पन्न होता है।
6. प्राथमिक शिक्षा में डिजिटल संसाधनों की कमी
डिजिटल लर्निंग के बढ़ते महत्व के बावजूद, अधिकांश सरकारी प्राथमिक स्कूलों में कंप्यूटर, इंटरनेट, और स्मार्ट क्लास जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान, जब ऑनलाइन शिक्षा आवश्यक हो गई थी, तब कई बच्चों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ा, क्योंकि उनके पास डिजिटल संसाधनों का अभाव था। UNICEF की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत के 70% से अधिक बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा के लिए आवश्यक उपकरण उपलब्ध नहीं थे।
इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि भारत में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त संसाधनों का अभाव एक बड़ी समस्या है। इस समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि सरकार और संबंधित संगठन प्राथमिक विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएं, शिक्षण सामग्री, और डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता को सुनिश्चित करें ताकि बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और समग्र शिक्षा प्राप्त हो सके।
4. पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक आर्थिक कारक
गरीबी, माता-पिता का अशिक्षित होना, और घरेलू कामों में बच्चों की संलग्नता जैसे कारण बच्चों की शिक्षा में बाधा बनते हैं। ऐसे बच्चों के पास शिक्षा प्राप्त करने का अवसर सीमित होता है, और वे अक्सर पढ़ाई छोड़ देते हैं।
उदाहरण एवं साक्ष्य -
प्राथमिक शिक्षा में बच्चों की उपलब्धि और सीखने की क्षमता में पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक-आर्थिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत जैसे देश में, जहाँ कई वर्गों में सामाजिक-आर्थिक असमानता व्याप्त है, इन कारकों का प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बिंदु और साक्ष्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं:
1. ASER रिपोर्ट (Annual Status of Education Report) 2021
ASER 2021 की रिपोर्ट में यह पाया गया कि ग्रामीण भारत में आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण कई बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों के स्कूल ड्रॉपआउट दर अधिक है, और वे नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाते हैं। इसके अतिरिक्त, उनके माता-पिता का शिक्षा का स्तर भी उनकी सीखने की क्षमता पर प्रभाव डालता है, क्योंकि अशिक्षित माता-पिता बच्चों को पढ़ाई में मदद नहीं कर पाते हैं।
2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020)
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में कई बच्चे सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के कारण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित हैं। नीति के अनुसार, जो परिवार गरीबी में जीवनयापन करते हैं, वे बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने में सक्षम नहीं होते। ऐसे परिवारों में बच्चों को पढ़ाई छोड़कर कार्य में सहयोग करने के लिए बाध्य किया जाता है, जिससे उनकी शिक्षा में अवरोध उत्पन्न होता है। NEP 2020 ने सुझाव दिया है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के बच्चों के लिए विशेष वित्तीय सहायता, छात्रवृत्तियाँ, और पोषण योजनाएँ चलाई जाएँ।
3. UNICEF की रिपोर्ट, 2019
UNICEF की 2019 की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के कई ग्रामीण और आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में बच्चों को शिक्षा का अधिकार होने के बावजूद स्कूलों में नामांकन दर कम है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि उनके माता-पिता के पास बच्चों को स्कूल भेजने के लिए आवश्यक वित्तीय और मानसिक समर्थन की कमी है। इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि गरीबी से जूझ रहे परिवारों में बच्चों के कुपोषण और स्वास्थ्य समस्याएं अधिक होती हैं, जिससे उनकी सीखने की क्षमता प्रभावित होती है।
4. World Bank का अध्ययन, 2018
वर्ल्ड बैंक के 2018 के अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 22% बच्चे गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं, जिनके पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों के कारण, ऐसे बच्चों के लिए शिक्षा केवल एक विकल्प न रहकर, उनके लिए एक असंभव कार्य बन जाती है। इसके साथ ही, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चे पढ़ाई के लिए समय नहीं निकाल पाते क्योंकि उन्हें परिवार की आर्थिक सहायता के लिए काम करना पड़ता है।
5. शिक्षा में लैंगिक असमानता
सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का असर लड़कियों की शिक्षा पर और भी अधिक पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कई परिवारों में अभी भी लैंगिक असमानता देखने को मिलती है, जहाँ बेटियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर प्राथमिकता लड़कों की शिक्षा को दी जाती है। इसके परिणामस्वरूप, बहुत सी लड़कियाँ शिक्षा से वंचित रह जाती हैं।
6. शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों का अंतर
सामाजिक-आर्थिक कारकों का प्रभाव शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में देखा जाता है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी तीव्रता अधिक है। ग्रामीण इलाकों में आर्थिक कठिनाइयाँ, पारिवारिक दबाव, और शिक्षा के प्रति कम जागरूकता बच्चों को शिक्षा से दूर कर देती हैं। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षणिक संस्थानों की संख्या भी सीमित होती है, जिसके कारण बच्चों को दूरदराज के स्कूलों में जाने की आवश्यकता होती है। आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर परिवार यात्रा खर्च उठाने में असमर्थ होते हैं, जिससे बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक-आर्थिक कारक बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता पर गहरा प्रभाव डालते हैं। शिक्षा को प्रभावी और समावेशी बनाने के लिए आवश्यक है कि इन कारकों को ध्यान में रखते हुए नीतियाँ बनाई जाएँ, ताकि हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त हो सके।
5. मूल्यांकन प्रणाली में कमियाँ
प्राथमिक स्तर पर अधिकांश मूल्यांकन बच्चों की वास्तविक समझ को नापने में असमर्थ होते हैं। बच्चों की सृजनात्मकता और समस्या समाधान क्षमता को परखने के बजाय केवल उनकी रटंत क्षमता का परीक्षण किया जाता है।
उदाहरण एवं साक्ष्य -
प्राथमिक शिक्षा में मूल्यांकन प्रणाली बच्चों के ज्ञान, कौशल, और संज्ञानात्मक विकास को मापने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। परंतु, वर्तमान में भारत की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में मूल्यांकन के विभिन्न पहलुओं में कई खामियाँ पाई जाती हैं। ये खामियाँ बच्चों के संपूर्ण विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं और शिक्षा के उद्देश्य को पूरी तरह से नहीं साध पातीं। यहाँ मूल्यांकन प्रणाली की प्रमुख कमियों और उनके प्रभाव का विश्लेषण किया गया है:
1. मेमोरी-आधारित मूल्यांकन
भारत की मूल्यांकन प्रणाली मुख्य रूप से रटने और याद करने पर आधारित है। बच्चों के ज्ञान और समझ का मूल्यांकन करने के बजाय, यह प्रणाली उन्हें तथ्यों को याद करने पर अधिक जोर देती है। ASER 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, बच्चों का मूल्यांकन इस तरह से किया जाता है कि वे परीक्षा में सही उत्तर लिख सकें, भले ही वे वास्तव में विषय को समझ नहीं पाते हों। इस प्रकार का मूल्यांकन बच्चों की रचनात्मकता और तार्किक सोच को बाधित करता है, जिससे उनका संज्ञानात्मक विकास प्रभावित होता है।
2. सीखने की प्रक्रिया की उपेक्षा
वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली केवल अंतिम परीक्षा या वार्षिक परीक्षा के आधार पर बच्चों की योग्यता का निर्धारण करती है। इस प्रक्रिया में उनकी पूरी साल की सीखने की प्रक्रिया को अनदेखा कर दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि शिक्षक और छात्र केवल परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे बच्चों की सीखने की प्राकृतिक प्रक्रिया बाधित होती है।
3. सीखने के विभिन्न स्तरों की पहचान का अभाव
मूल्यांकन प्रणाली सभी बच्चों को एक ही पैमाने पर मापती है, जबकि हर बच्चे की सीखने की गति और क्षमताएँ अलग होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कमजोर छात्रों को उचित सहायता नहीं मिल पाती और मेधावी छात्रों को अतिरिक्त प्रोत्साहन देने की कोई व्यवस्था नहीं होती। UNESCO की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, मूल्यांकन प्रणाली में इस तरह की लचीलापन की कमी से विभिन्न स्तरों पर बच्चों की प्रगति पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया जाता।
4. व्यावहारिक कौशल का अभाव
मूल्यांकन प्रणाली में केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर ही जोर दिया जाता है, जबकि व्यावहारिक और जीवन कौशल के विकास की उपेक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए, गणित और विज्ञान जैसे विषयों में केवल लिखित परीक्षाओं के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है, जबकि छात्रों के व्यावहारिक कौशल पर ध्यान नहीं दिया जाता। इससे बच्चों की वास्तविक समस्याओं को सुलझाने की क्षमता और रचनात्मकता का विकास बाधित होता है।
5. फीडबैक की कमी
मूल्यांकन का एक प्रमुख उद्देश्य बच्चों को उनकी प्रगति के बारे में उचित फीडबैक देना है, ताकि वे अपनी कमियों को पहचान सकें और उनमें सुधार कर सकें। लेकिन भारतीय मूल्यांकन प्रणाली में यह फीडबैक प्रणाली कमजोर है। ASER रिपोर्ट में यह बताया गया है कि केवल परीक्षा परिणाम ही बच्चों को उनकी योग्यता का आभास कराते हैं, जबकि उनके सुधार की दिशा में कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता।
6. शिक्षकों के प्रशिक्षण की कमी
मूल्यांकन प्रणाली की खामियों का एक कारण शिक्षकों का उचित प्रशिक्षण न होना भी है। अधिकांश शिक्षक पारंपरिक तरीके से ही बच्चों का मूल्यांकन करते हैं और नई मूल्यांकन तकनीकों का प्रयोग नहीं करते। इस कमी के कारण मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार नहीं हो पाता और बच्चों के प्रदर्शन का सही आकलन नहीं हो पाता। NEP 2020 ने इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता बताई है और शिक्षकों के प्रशिक्षण में सुधार पर जोर दिया है।
7. समग्र मूल्यांकन का अभाव
मूल्यांकन प्रणाली में बच्चों के बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास का समग्र आकलन करने की कमी पाई जाती है। परीक्षा में अंक आधारित प्रणाली से केवल बच्चों के सैद्धांतिक ज्ञान का मापन किया जाता है, जबकि उनके व्यक्तित्व, नैतिकता, और मूल्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। परिणामस्वरूप, बच्चों में आत्मविश्वास, अनुशासन, और सहयोग की भावना का विकास अधूरा रह जाता है।
8. मूल्यांकन का तनाव
परीक्षा-आधारित मूल्यांकन प्रणाली बच्चों में अत्यधिक तनाव और दबाव उत्पन्न करती है। विशेष रूप से छोटी कक्षाओं में यह प्रणाली बच्चों की मानसिक सेहत को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। बच्चों पर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव उनके सीखने की प्रक्रिया को बाधित करता है और उनमें शिक्षा के प्रति रुचि कम कर देता है।
6.शिक्षकों में अपने दायित्वों के साथ प्रति उदासीनता -
प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि वे बच्चों के बौद्धिक और नैतिक विकास की नींव रखते हैं। हालांकि, वर्तमान में कई अध्ययनों और रिपोर्ट्स में यह देखा गया है कि शिक्षकों में अपने दायित्वों के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है। यह उदासीनता न केवल बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है बल्कि पूरी शिक्षा प्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है। शिक्षकों की इस उदासीनता के विभिन्न कारण और इसके प्रभाव निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझे जा सकते हैं:
1. अत्यधिक गैर-शैक्षणिक कार्यभार
भारत में शिक्षकों पर शिक्षा के अलावा भी कई गैर-शैक्षणिक कार्य जैसे जनगणना, चुनाव ड्यूटी, और स्वास्थ्य सर्वेक्षण आदि का भार डाला जाता है। इससे उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी, यानी शिक्षण, प्रभावित होती है। UNESCO की एक रिपोर्ट बताती है कि इस तरह के कार्यों में उलझे रहने से शिक्षकों का शैक्षणिक प्रदर्शन कमजोर होता है और वे बच्चों की शिक्षा की ओर कम ध्यान दे पाते हैं।
2. प्रशिक्षण और पेशेवर विकास की कमी
शिक्षकों के लिए नियमित प्रशिक्षण और पेशेवर विकास का अभाव भी उनकी उदासीनता का एक बड़ा कारण है। अधिकांश शिक्षकों को उनके क्षेत्र में नई शिक्षण विधियों और प्रौद्योगिकियों का ज्ञान नहीं होता, जिससे वे बच्चों के साथ प्रभावी रूप से संवाद नहीं कर पाते। NEP 2020 में भी इस बात पर जोर दिया गया है कि शिक्षकों के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों की व्यवस्था की जाए ताकि वे अपने दायित्वों को अधिक कुशलता से निभा सकें।
3. प्रेरणा की कमी
शिक्षकों को अपनी कक्षाओं में रचनात्मक और सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता। इसके अलावा, उनके कार्यों की सराहना और मान्यता का अभाव भी उन्हें उदासीन बना देता है। एक प्रभावी प्रेरणा प्रणाली के अभाव में शिक्षक अपनी जिम्मेदारियों को केवल एक औपचारिकता मानते हैं, जिससे बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा नहीं मिल पाती।
4. स्कूल प्रशासन का समर्थन न मिलना
कई स्कूलों में शिक्षकों को प्रशासनिक और सामुदायिक समर्थन नहीं मिलता। इससे वे अपने काम में एकाकी महसूस करते हैं और अपने दायित्वों के प्रति उत्साह खो देते हैं। यदि स्कूल प्रशासन उन्हें शिक्षण में मदद और सहयोग प्रदान करे, तो वे अपनी जिम्मेदारियों के प्रति अधिक गंभीर हो सकते हैं।
5. कठोर निगरानी और दबाव
कुछ जगहों पर शिक्षकों पर अत्यधिक निगरानी और परिणामों का दबाव डाला जाता है, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। ऐसे में शिक्षक अपने कार्यों में रुचि खो देते हैं और केवल मानदंडों की पूर्ति के लिए काम करने लगते हैं। OECD के एक अध्ययन के अनुसार, अत्यधिक दबाव में शिक्षक तनावग्रस्त रहते हैं और शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आती है।
6. शिक्षकों में आत्मविश्वास और कौशल की कमी
कई शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारियों का सही ढंग से निर्वहन करने का आत्मविश्वास नहीं होता, क्योंकि वे अपने कौशल को लेकर स्वयं असमंजस में रहते हैं। उन्हें यह विश्वास नहीं होता कि वे बच्चों को सही मार्गदर्शन दे सकते हैं। इस कारण वे अपनी कक्षाओं में निष्क्रिय रहते हैं और बच्चों की प्रगति पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते।
7. संस्कृति और समाज का प्रभाव
कई समाजों में शिक्षकों का पेशा उतना सम्मानित नहीं माना जाता, जिससे उनकी उदासीनता बढ़ती है। समाज से अपेक्षित सम्मान न मिलने पर वे अपने कार्य में प्रेरणा खो बैठते हैं और बच्चों की शिक्षा पर ध्यान नहीं दे पाते। इस समस्या को हल करने के लिए शिक्षकों के पेशे को समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा देने की आवश्यकता है।
समाधान हेतु सुझाव
इन कमियों को दूर करने के लिए शिक्षकों की उदासीनता कम करने के निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
शिक्षकों को अधिक वेतन और बेहतर कार्य वातावरण प्रदान करना।
गैर-शैक्षणिक कार्यों का भार कम करना ताकि वे पूरी तरह से शिक्षण पर ध्यान केंद्रित कर सकें।
नियमित प्रशिक्षण और पेशेवर विकास कार्यक्रमों की व्यवस्था करना।
उनके काम की सराहना और मान्यता के लिए पुरस्कृत करने की योजना बनाना।
स्कूल प्रशासन और सामुदायिक समर्थन में सुधार करना ताकि शिक्षक अपने कार्य में प्रेरणा और उत्साह महसूस करें।
इन उपायों से शिक्षकों की अपने दायित्वों के प्रति उदासीनता में कमी लाई जा सकती है और प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है।
समाधान के उपाय
1. शिक्षकों का बेहतर प्रशिक्षण
शिक्षकों को आधुनिक और प्रभावी शिक्षण तकनीकों के साथ प्रशिक्षित करना अनिवार्य है। इसके लिए सरकार को प्रशिक्षकों की गुणवत्ता सुधारने और शिक्षकों के प्रति जवाबदेही को मजबूत करने के कदम उठाने चाहिए। नियमित कार्यशालाएं, ऑन-डिमांड कोचिंग और सत्र शिक्षक प्रशिक्षण के महत्वपूर्ण साधन हो सकते हैं।
2. उपयुक्त और सरल पाठ्यक्रम निर्माण
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत कक्षा 5 तक मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया गया है। इससे बच्चों को उनके घरेलू वातावरण से जोड़कर पढ़ाई में रुचि बढ़ाई जा सकती है। बच्चों के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम की संरचना आवश्यक है, जिससे उनकी समझ और रुचि बढ़ेगी।
3. संसाधनों का सुदृढ़ीकरण
प्रत्येक विद्यालय में पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करना प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिए स्थानीय समाजसेवी संगठनों, पंचायतों, और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है ताकि स्कूलों में पुस्तकालय, खेल के मैदान, और डिजिटल कक्षाएं उपलब्ध कराई जा सकें।
4. समुदाय और माता-पिता की भागीदारी
बच्चों की शिक्षा में उनके अभिभावकों और समुदाय का सहयोग अहम है। इसके लिए स्कूल स्तर पर समुदाय में जागरूकता अभियान चलाए जा सकते हैं। माता-पिता को बच्चों की शिक्षा में शामिल करने के लिए स्कूलों में पेरेंट-टीचर मीटिंग्स आयोजित करना उपयोगी साबित हो सकता है।
5. प्रभावी मूल्यांकन प्रणाली
बच्चों की शिक्षा में सुधार के लिए एक नई मूल्यांकन प्रणाली विकसित की जानी चाहिए। इसके अंतर्गत बच्चों के सृजनात्मक, तार्किक, और संवाद कौशल का मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि उनकी समग्र योग्यता का आकलन हो सके।
साक्ष्य आधारित अध्ययन और उदाहरण
ASER रिपोर्ट 2022: इस रिपोर्ट में यह पाया गया कि ग्रामीण भारत में कक्षा 3 के बच्चों में से केवल 27% बच्चे ही कक्षा 2 के स्तर का गणित समझ पाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा में कमी केवल एक शहरी समस्या नहीं है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्र में भी लर्निंग क्राइसिस गहरी जड़ें बना चुकी है।
प्रयास फाउंडेशन का प्रयोग: महाराष्ट्र के एक गाँव में प्रयास फाउंडेशन द्वारा ‘सक्षम स्कूल’ कार्यक्रम चलाया गया, जिसमें बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा दी गई। इससे बच्चों की साक्षरता और अंकगणितीय क्षमता में उल्लेखनीय सुधार देखा गया।
केरल मॉडल: केरल राज्य में बच्चों की शिक्षा में सुधार लाने के लिए शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों, समुदाय के सहयोग और गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम पर जोर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप केरल का साक्षरता दर सबसे ऊँचा है और शिक्षा गुणवत्ता में भी वृद्धि हुई है।
समाधान हेतु सुझाव
इन कमियों को दूर करने के लिए मूल्यांकन प्रणाली में कई सुधारों की आवश्यकता है। जैसे:
समग्र और सतत मूल्यांकन (CCE) प्रणाली का समावेश, जिसमें बच्चों के संपूर्ण विकास का आकलन किया जाए।
मूल्यांकन प्रणाली को बच्चों की सोचने की क्षमता और रचनात्मकता पर केंद्रित करना चाहिए, न कि केवल रटने पर।
शिक्षकों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि वे आधुनिक मूल्यांकन तकनीकों का उपयोग कर सकें।
बच्चों को प्रगति के बारे में नियमित फीडबैक देना और सुधार के लिए मार्गदर्शन करना।
इन सुधारों से मूल्यांकन प्रणाली बच्चों के संपूर्ण विकास में सहायक बन सकती है और प्राथमिक शिक्षा में लर्निंग क्राइसिस को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
निष्कर्ष
प्राथमिक शिक्षा में लर्निंग क्राइसिस एक गंभीर चुनौती है, लेकिन इसका समाधान भी संभव है। इस दिशा में सरकार, समाज और शिक्षकों की सामूहिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। बेहतर शिक्षण प्रणाली, उपयुक्त पाठ्यक्रम, बच्चों के लिए अनुकूल वातावरण, और परिवार के सहयोग से ही इस संकट से उबरा जा सकता है। केवल पाठ्यक्रम सुधार या शिक्षकों के प्रशिक्षण तक सीमित न रहकर, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली में सुधार से हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का लाभ मिल सके।
अतः इस शोध पत्र के माध्यम से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राथमिक शिक्षा में लर्निंग क्राइसिस को समाप्त करने के लिए समेकित दृष्टिकोण आवश्यक है, जिसमें हर पहलू पर ध्यान दिया जाए और प्रत्येक बच्चे को उचित शिक्षा प्राप्त हो सके।
शोधार्थी
चन्द्रपाल राजभर
सहायक अध्यापक प्राथमिक विद्यालय रानीपुर कायस्थ कादीपुर सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश
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