Sunday, July 27, 2025

तपती धूप ने जब सताया,तब छाया के बीज से एक कलाकार ने धरती को संवेदना का आँचल पहनाया।

तपती धूप ने जब सताया,तब छाया के बीज से एक कलाकार ने धरती को संवेदना का आँचल पहनाया।


तपती हुई दोपहर, जब अप्रैल की धूप मानों धरती को जलानें पर उतारू हो, उस समय कोई यदि छाया का सपना देखे तो वह केवल कल्पना नहीं, संवेदनशीलता की चरम अभिव्यक्ति है। ऐसा ही एक संवेदनशील क्षण था, जब मैंने अपने विद्यालय परिसर में ढिठोर का पौधा रोपा। उस क्षण मेरे मन में बस एक ही बात चल रही थी—यदि आज हम न सोचे, तो आने वाले बच्चे/पीढ़ियाँ तपती धूप में जलते रहेंगे, छाया के लिए तरसते रहेंगे।प्रकृति से मेरा लगाव केवल एक चित्रकार का सौंदर्यबोध भर नहीं है, यह मेरे भीतर की उस पीड़ा की अभिव्यक्ति है, जो हर बार जलती गर्मी में और सूखती नदियों में महसूस होती है। एक कलाकार के रूप में मैंने प्रकृति को न केवल रंगों में उतारा है, बल्कि उसे जिया भी है। हर पेड़ जो मैंने लगाया, वह मेरे चित्र का जीवंत अंश है—कभी वह पत्तियों की सरसराहट में मेरी कविता बनती है, तो कभी उसकी छाया मेरे विचारों की शांति बन जाती है।मनोविज्ञान यह कहता है कि हर संवेदनशील मनुष्य भीतर से प्रकृति से जुड़ा होता है। जब हम किसी फूल को मुरझाता देखते हैं और मन दुखी होता है, तो वह हमारी आत्मा का संकेत होता है कि हम अभी भी इंसान हैं। यह इंसानियत ही तो है, जो हमें पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करती है, बिना किसी शोर, बिना किसी अपेक्षा के। और जब वही संवेदनशीलता मेरे भीतर कलाकार बनकर फूटती है, तो मैं उसे केवल चित्रों में नहीं, पेड़ों की छाया में भी उकेरता हूं।5 जून, जब विश्व पर्यावरण दिवस आता है, तब मैं उसे एक औपचारिकता की तरह नहीं देखता। यह दिन मेरे लिए आत्ममंथन का दिन होता है—क्या मैंने इस वर्ष धरती के लिए कुछ किया? क्या मेरी आत्मा ने प्रकृति को कुछ लौटाया? शायद इसी सोच के चलते मैं केवल विद्यालय परिसर में ही नहीं, बल्कि नगर के विविध स्थलों पर भी पौधे लगाने का निरंतर प्रयास करता हूं।ढिठोर का वह पेड़, जो अब विद्यालय में विद्यार्थियों को छाया दे रहा है, मेरी सोच और चिंता का जीवंत प्रमाण है। बच्चों को जब उस पेड़ के नीचे बैठते देखता हूं, तो मन को सुकून मिलता है कि मैंने उन्हें सिर्फ शिक्षा ही नहीं, जीवन को बचानें की एक दिशा भी दी है। वे अब पेड़ों को किताबों की तरह पढ़ते हैं, उन्हें समझते हैं, और सबसे बड़ी बात—उन्हें अपनाते हैं।मनुष्य जब तक प्रकृति से अलग होकर विकास की बातें करेगा, तब तक विनाश तय है। वनों की कटाई, कंक्रीट की दीवारें, और हवा में घुलते ज़हर ने इस धरती को जर्जर बना दिया है। यह वही धरती है जो कभी पुष्पों से लदी रहती थी, अब धूल से भरी है। जब गर्मी का ताप असहनीय हो गया, तब मैंने जाना कि राहत केवल मशीनों में नहीं, पेड़ों में है। और यह समझ ही मेरे जीवन की प्रेरणा बन गई।शायद यही कारण है कि मेरे प्रयासों को समाज ने पहचाना, और मुझे पर्यावरण योद्धा जैसे सम्मानों से नवाजा गया। लेकिन पुरस्कार मेरे लिए केवल प्रमाण नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का एहसास हैं—कि मुझे और करना है, औरों को भी जोड़ना है।विद्यालय अब केवल शिक्षा का केंद्र नहीं, बल्कि प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक बन गया है। बच्चे अब जानते हैं कि किताबों से ज़्यादा जरूरी पेड़ भी हैं। और मैं, एक शिक्षक, एक कलाकार, एक लेखक, एक कवि, एक सिंगर,एक भारत का नागरिक होने के नाते, यह संकल्प लेता हूं कि जब तक सांसें हैं, हर वर्ष कुछ पौधे धरती को अर्पित करता रहूंगा।
क्योंकि एक कलाकार होने के नाते मैं मानता हूं—धरती सबसे सुंदर चित्र है, और हम सब उसके रंग। अगर हमनें यह चित्र बिगाड़ दिया, तो फिर कोई कैनवास नहीं बचेगा।

— आर्टिस्ट चंद्रपाल राजभर

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