हर मनुष्य का जन्म इस धरती पर समान अधिकार लेकर होता है, लेकिन जब हम इस धरती की ज़मीन को देखते हैं तो यह समानता केवल शब्दों में सीमित रह जाती है। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में, जहाँ “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” की अवधारणा रही है, वहीं आज की सच्चाई यह है कि ज़मीन जैसे मूलभूत संसाधन पर कुछ वर्गों का एकाधिकार बन गया है, जबकि बहुसंख्यक लोग अपनी छत तक को तरस रहे हैं।कल्पना कीजिए एक ऐसे राष्ट्र की, जहाँ हर नागरिक को उतनी ही ज़मीन मिले जितनी उसकी ज़रूरत हो—ना ज़्यादा, ना कम। ऐसा कोई स्वप्न नहीं है, बल्कि यह उस न्यायपूर्ण व्यवस्था की नींव हो सकती है, जो सामाजिक विषमता, गरीबी और बेघरपन जैसी विकृतियों को जड़ से समाप्त कर सकती है।आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर का यह चिंतन केवल भूमि वितरण की बात नहीं करता, बल्कि वह उस आत्मिक पीड़ा को सामने लाता है जो उस मजदूर के चेहरे पर उभरती है, जो पूरी ज़िंदगी दूसरों की ज़मीन जोतता है, पर खुद के लिए एक कोना तक नहीं बना पाता। यह उस आदिवासी के हक़ की लड़ाई है, जिसकी ज़मीनें विकास के नाम पर छीन ली जाती हैं, और उसे ही 'अवैध' घोषित कर जंगल से खदेड़ दिया जाता है। यह उस किसान की पुकार है, जो कर्ज़ के बोझ तले दबकर ज़मीन होते हुए भी खुद को बेघर समझता है।मनुष्य और ज़मीन का संबंध केवल स्वामित्व का नहीं, अस्तित्व का है। एक बच्चा जब जन्म लेता है, तो उसे हवा, पानी, प्रकाश की तरह ज़मीन भी चाहिए। सोचिए, क्या किसी को यह कहकर ज़मीन से वंचित किया जा सकता है कि उसका जन्म साधारण परिवार में हुआ? क्या यह उस राष्ट्र की गरिमा है जहाँ चाँद पर चंद्रयान उतरता है, लेकिन करोड़ों लोग आज भी कच्ची झोपड़ियों में जीवन गुज़ारने को मजबूर हैं?यह व्यवस्था केवल अमीर और गरीब की दूरी नहीं बनाती, बल्कि यह पीढ़ियों की नियति तय कर देती है। जिस बच्ची के पाँव कभी खुले आँगन में नहीं पड़े, वह खुले विचारों की उड़ान कैसे भरेगी? यह असमानता केवल आर्थिक नहीं, मानसिक, सामाजिक और नैतिक पतन का भी कारण बनती है।यदि हम वास्तव में देश को ‘स्वर्णिम भारत’ बनाना चाहते हैं, तो प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का समान अधिकार सुनिश्चित करना होगा। ज़मीन कोई वंशानुगत बपौती नहीं, यह पृथ्वी माता का आशीर्वाद है, जिस पर हर संतान का बराबर का हिस्सा है। यह न केवल सामाजिक न्याय होगा, बल्कि एक सच्चे लोकतंत्र की दिशा में वास्तविक कदम भी।चन्द्रपाल राजभर की यह सोच हमें एक नई दृष्टि देती है—जहाँ विकास का मतलब कुछ लोगों के महल नहीं, सबके लिए घर हो। वह यह संदेश देते हैं कि जब तक हर नागरिक को समान ज़मीन का हक़ नहीं मिलेगा, तब तक राष्ट्र का संतुलन अधूरा रहेगा।अब समय है कि हम ज़मीन को संपत्ति नहीं, जिम्मेदारी समझें। इसका बंटवारा सत्ता नहीं, संवेदना के आधार पर हो। तभी यह राष्ट्र एक ऐसे घर में बदलेगा, जहाँ कोई खुद को बेगाना नहीं, बल्कि धरती का सच्चा उत्तराधिकारी समझेगा।
आर्टिस्ट चन्द्रपाल राजभर
लेखक SWA MUMBAI